परमवीर चक्र विजेताओं की शौर्य गाथा
मेजर सोमनाथ शर्मा
क्योंकि आज के वर्तमान समय को देखते हुये देश युवाओं में बढ़ते विरोधी-देश प्रेम को समाप्त करने के लिए आवश्यक है, कि हम ऐसा वीरों की पराक्रम फलीभूत जीवन-गाथा अपने देश के युवा पीढि़ में जोर-शोर से संचारित करे, ताकि वे उक्त जीवन-गाथा से प्रेरित होकर देशभक्ति के मार्ग पर अपना विश्वास अडिग बनाने में सहायक सिद्ध हो।
जी हां हम आज चर्चा कर रहें ऐसी शख्सियत की, जो कि किसी भी व्यक्ति के परिचय की मोहताज नहीं बल्कि उस निडर योद्धा का नाम जुबां पर आते ही, पाकिस्तान द्वारा भारत पर प्रथम हमला जिसका दृश्य पल-भर के लिए, मानो आंखों के समक्ष प्रस्तुत सा हो जाता है। ऐसे निष्ठा वान, अमर बलिदानी, कर्तव्य परायण, निर्भीकयोद्धा (सेवा संख्याक आईसी 521) सोमनाथ शर्मा की जो ऐसी विभूति है, अन्य वीर सैनिकों या आज की युवा पीढि़ उनके जीवन शैली से देश भक्ति की प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं।
मेजर सोमनाथ शर्मा को 'बैटल ऑफ बडगाम' के लिए जाना जाता है. बंटवारे के बाद भारत पाकिस्तान के बीच जंग छिड़ चुकी थी. कबिलाई घुसपैठियों की आड़ में पाकिस्तान की सेना ने कश्मीर पर हमला बोल दिया था. 27 अक्टूबर 1947 को भारतीय सेना ने अपनी एक टुकड़ी कश्मीर घाटी की सुरक्षा के लिए भेजी.
मेजर सोमनाथ शर्मा उस वक्त कुमाऊं बटालियन की डी कंपनी में तैनात थे. जब सेना ने उनकी कंपनी को कश्मीर में तैनाती का आदेश जारी किया, उस वक्त मेजर सोमनाथ शर्मा के दाहिने हाथ पर प्लास्टर चढ़ा था. वो हॉकी खेलने के दौरान चोटिल हो गए थे. सेना ने उनके हाथ की इंजरी को देखते हुए, उन्हें इस ऑपरेशन से दूर रहने की सलाह दी. लेकिन मेजर सोमनाथ शर्मा नहीं माने. वो जंग के मैदान में हाथ से नहीं अपने हौसले से जौहर दिखाना चाहते थे.
सेना ने उनकी बात को मानते हुए उन्हें बडगाम में डी कंपनी के साथ भेज दिया. 3 नवंबर 1947 को बडगाम में सेना की तीन कंपनियां तैनात की गई. उन्हें उत्तर की तरफ से बढ़ने वाले पाकिस्तानी सैनिकों को श्रीनगर पहुंचने से रोकना था. उसी दौरान मेजर सोमनाथ शर्मा की डी कंपनी के जवानों पर स्थानीय घरों से फायरिंग होनी शुरू हो गई. सैनिकों ने आम जानमाल को नुकसान न पहुंचे, इसलिए जवाबी कार्रवाई नहीं की. उसी वक्त करीब 700 आतंकियों और पाकिस्तानी सैनिकों की एक टुकड़ी बडगाम की तरफ बढ़ी. वो गुलमर्ग से बडगाम की तरफ बढ़ रहे थे. मेजर सोमनाथ शर्मा की डी कंपनी तीन तरफ से दुश्मनों से घिर गई. उनकी कंपनी पर मोटार्र से भारी हमला हुआ. मेजर सोमनाथ शर्मा की सैन्य टुकड़ी ने बहादुरी से मुकाबला किया. मेजर शर्मा अपने जवानों का हौसला बढ़ाते रहे.
एक हाथ पर प्लास्टर चढ़े होने के बावजूद वो तीन सैन्य टुकड़ियों के हमले का संचालन संभाल रहे थे. कभी वो एक पोस्ट पर जाते तो कभी दूसरे पोस्ट पर. हमले के दौरान वो तीन सैन्य टुकड़ियों बीच भागदौड़ कर रहे थे. श्रीनगर और उसके एयरपोर्ट को बचाए रखने के लिए आंतकियों और पाकिस्तानी सेना को वहीं रोके रखना जरूरी था.
डी कंपनी पर हुए तीन तरफा हमले से उसका जबरदस्त नुकसान हुआ था. मेजर सोमनाथ शर्मा खुद भाग-भागकर सैनिकों के बीच हथियार और गोला-बारूद की सप्लाई कर रहे थे. एक लाइट मशीनगन उन्होंने अपने हाथ में थाम रखी थी.
इसी दौरान आतंकियों का एक मोटार्र शेल गोल-बारूद के एक जखीरे पर गिरा. भयानक विस्फोट हुआ. इस भयानक हमले में मेजर सोमनाथ शर्मा वीरगति को प्राप्त हुए. शहीद होने से पहले उन्होंने अपने हेडक्वॉर्टर को संदेश भेजा था. उसमें उन्होंने लिखा था- 'दुश्मन हमसे सिर्फ 50 यार्ड्स की दूरी पर हैं. हमारी संख्या काफी कम है. हम भयानक हमले की जद में हैं. लेकिन हमने एक इंच जमीन नहीं छोड़ी है. हम अपने आखिरी सैनिक और आखिरी सांस तक लड़ेंगे.'
जब तक बचाव के लिए कुमाऊं रेजीमेंट की पहली बटालियन वहां पहुंचती, काफी नुकसान हो चुका था. जंग के मैदान में एक भारतीय सैनिक के मुकाबले दुश्मनों की संख्या 7 थी. इसके बावजूद मेजर शर्मा की डी कंपनी ने 200 आतंकियों और पाकिस्तानी सैनिकों को ढेर कर दिया था. उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया था.
इस मुठभेड़ में मेजर सोमनाथ शर्मा और एक जूनियर कमिशंड ऑफिसर के साथ 20 जवान शहीद हो गए. मेजर शर्मा की बॉडी तीन दिन बाद मिली. उनके शव को उनके पिस्टल के होल्डर और उनके सीने से चिपके भगवत गीता से पहचाना जा सका. मेजर सोमनाथ शर्मा की वीरता ने भारतीय सेना का सीना गर्व से चौड़ा कर दिया था. इसलिए जब सेना के पहले सर्वोच्च सम्मान परमवीर चक्र का ऐलान हुआ तो सेना ने पहले नाम के तौर पर मेजर सोमनाथ शर्मा का नाम चुना.
1950 में पहली बार देश के सर्वोच्च सैनिक सम्मान वीपरमर चक्र देने की शुरुआत हुई थी. भारतीय सेना (Indian Army) ने इस सबसे बड़े सम्मान के लिए मेजर सोमनाथ शर्मा को चुना. 21 जून 1950 को मरणोपरांत मेजर सोमनाथ शर्मा को परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. जो कि उनके पिता श्री अमरनाथ शर्मा जी ने हासिल किया। भाग्य की विडम्बना देखिये जो भी सम्मान मिला, वह भी उनके भाई की पत्नि सावित्री बाई खानोलकर ने ही डिजाईन किया था।
देश के इस वीर जवान के जांबाजी के किस्से रोंगटे खड़े करने वाले हैं. 1947 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में इन्होंने जिस वीरता का परिचय दिया था, उसका पूरा देश कायल है.
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